सोमवार, 2 जनवरी 2017

समाजवादियों के नेता के रूप में उभरे अखिलेश

-चरण सिंह राजपूत/ यह नेताजी का जुझारूपन ही रहा है कि उन्होंने अपने वजूद में कभी किसी का सहारा लेना नहीं सीखा। जहां कहीं अन्याय हुआ उसका डटकर विरोध किया। गलत बात के लिए वह अपनों से भी भिड़ते रहे हैं। जब चौधरी चरण सिंह के अपने पुत्र अजित सिंह को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपी तो उन्होंने अपने ही गुरु चरण सिंह से ही बगावत कर दी। 1989 में जब केंद्र में जनता दल की सरकार बनी तो प्रधानमंत्री वीपी सिंह के उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री अजित सिंह को बनवाने के प्रयास पर उन्होंने वीपी सिंह से भी बगावत की और अपने दम पर विधायक दल के नेता बनकर उत्तर प्रदेश की बागडोर संभाली। बाद में वह चंद्रशेखर जी के साथ सजपा में आये तो प्रो. रामगोपाल को राज्यसभा का प्रत्याशी बनाने पर चंद्रशेखर जी की नाराजगी पर उन्होंने उनसे भी बगावत की तथा 6 नवम्बर 1992 को अपनी पार्टी समाजवादी पार्टी बनाई तथा खुद दो दो बार तथा पूर्ण बहुमत के साथ अपने पुत्र अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाया। यह मुकाम उन्होंने विरोध की राजनीति कर ही हासिल किया है।
नेताजी यह भूल गए थे कि अखिलेश यादव उनके अपने ही पुत्र हैं। अन्याय और गलत बाद का विरोध करना उन्होंने उनसे ही सीखा है। वह कहां तक अन्याय सहते। उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद कितने काम उनसे दबाव में कराए गए, जिनसे उनकी छिछालेदार हुई। उनके अच्छा संगठन चलाने और ऐतिहासिक विकास कार्य कराने के बावजूद उनसे प्रदेश अध्यक्ष का पद छीन लिया गया। उनको गुस्सा इस बात का ज्यादा था क्योंकि उनका यह पद नेताजी ने अमर सिंह के कहने पर लिया था। उनके तमाम विरोध के बावजूद न केवल अमर सिंह को पार्टी में लिया गया बल्कि उनको राज्यसभा सदस्य के साथ ही संसदीय बोर्ड में भी सुशोभित किया। अखिलेश यादव के विरोध करने पर भी बाहुबलि मुख्तयार अंसारी को पार्टी में ले लिया गया। खनन माफिया गायत्री प्रजापति और अतीक अहमद को टिकट दे दिया गया। इसी बीच अतीक अहमद ने अखिलेश यादव गलत टिप्पणी भी की। अखिलेश यादव लिस्ट को दरकिनार पर उनके समर्थक मंत्री अरविंद सिंह गोप, राम गोविंद सिंह, पवन पांडे समेत कई विधायकों को टिकट नहीं दिया। जब वह इस मामले में नेताजी से मिले तब भी उन्होंने उन्हें कोई खास तवज्जो नहीं दी। ऐसे में यदि अखिलेश यादव चुप रहते तो कमजोर माने जाते। उनकी बगावत जायज थी।
ऐसे में सपा महासचिव रामगोपाल यादव और अखिलेश यादव का छह साल के निष्कासन ने आग में घी का काम किया। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की विधायकों की तथा नेताजी की प्रत्याशियों की बैठक बुलाने पर जब 198 विधायक अखिलेश के पाले में पहुंच गए तो नेताजी की सब कुछ समझ में आ गया। इस परिस्थिति में जब पार्टी की फूट का फायदा भाजपा या बसपा को मिल सकता था तो मझे हुए राजनीतिक खिलाड़ी मो. आजम खां ने सूझबूझ और समझदारी का परिचय देते हुए नेताजी व अखिलेश यादव की बैठक कराई। इस बैठक में नेताजी ने शिवपाल यादव को भी बुला लिया। पिता-पुत्र के गिले सिकवे दूर हुए। दोनों ओर से समझ में आ गया कि असली विवाद की असली जड़ अमर सिंह है। अब नेताजी को अच्छी तरह से समझ में आ गया है कि अमर सिंह पार्टी की 'कीमतÓ मांग रहे हैं।
पार्टी में बने माहौल ने यह तो साबित हो गया कि अमर सिंह को पार्टी से निकालकर ही पार्टी और घर का वजूद बचाया जा सकता है। अखिलेश यादव के समर्थक अब उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने पर भी अड़ गए हंै। उनका सोचना है कि नेताजी के अध्यक्ष पद पर बने रहते अमर सिंह फिर से कोई खेल खेल सकते हैं। अब तो नेताजी सरकार और संगठन दोनों अखिलेश यादव को सौंपना पड़ सकता है। राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं तो प्रदेश अध्यक्ष तो बनाना ही होगा।
नेताजी ने भले ही विरोध कर अखिलेश यादव को प्रदेश का ही नहीं बल्कि देश के समाजवादियों का नेता बना दिया है। किसी नेता के पार्टी के निष्कासन के बाद पूरी की पूरी पार्टी उसके साथ आ जाए, वह भी पार्टी के संस्थापक, राष्ट्रीय अध्यक्ष के खिलाफ। देश का यह पहला मामला है। इस तरह का विरोध करना का दम डॉ. राम मनोहर लोहिया में हुआ कर था। अखिलेश यादव का इस स्टैंड ने लोहिया जी की यादें ताजा कर दी हैं। अब तक तो समाजवादी पार्टी के समाजवादी ही उनकी तारीफ कर रहे थे अब दूसरी पार्टी के समाजवादी भी तारीफ में कसीदे पढ़ रहे हैं। आज की तारीख में उनकी लोकप्रियता बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से कहीं ज्यादा है। देश के समाजवादी नेताओं पर नजर डालें तो अखिलेश यादव सब पर बीस बैठते हैं। कहना गलत न होगा कि अखिलेश यादव समाजवादियों के नेता के रूप में उभरे हैं। ऐसे में नेताजी के पास यह सुनहरा अवसर है कि संगठन अखिलेश यादव को सौंपकर खुद संरक्षक की भूमिका में आकर समाजवादी पार्टी का मागदर्शन करें।

-चरण सिंह राजपूत

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