गुरुवार, 20 अक्तूबर 2016

बिहार केसरी डॉ0 श्रीकृष्ण सिंह : एक दार्शनिक शासक

-प्रभात कुमार राय/ आधुनिक बिहार के निर्माता एवं बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्री बाबू (21.10.1889-31.1.1965) मानवीय मूल्यों एवं भारतीय दर्शन के प्रेरक तत्वों को अपने व्यक्तित्व में समाहित कर उत्तम कोटि का प्रशासन तथा बिना भेद-भाव, द्वेष एवं वैर के सर्वजनवरेण्य नेतृत्व प्रदान करने के लिए हमेशा जाने जायेंगे। उनके उदार एवं निष्कलंक चरित्र में बुद्ध की करूणा, गाँधी की नैतिकता एवं सदाचार परिवेष्ठित थी। राजनीति को कभी भी उन्होंने सत्ता-सुख का उपकरण नहीं माना वरन् मानव सेवा का एक सशक्त माध्यम एवं सुनहले अवसर के रूप में लिया। सामाजिक समरसता एवं सद्भावना का वातावरण बनाना उनकी प्राथमिकताओं में था। उनके निधन पर राष्ट्रकवि दिनकर ने अपनी त्वरित टिप्पणी में बिहार के ’’श्री’’ हीन होने का जिक्र किया था। उन्होंने कहा थाः ’शासक के रूप में श्री बाबू की अनेक विशेषताओं में से एक बड़ी विशेषता यह भी थी कि वे अल्पसंख्यकों के हितों के प्रबल पोषक और पहरेदार थे। यदि हम बिहार में इस उदार परंपरा को आगे भी कायम रख सकें तो यही श्री बाबू के प्रति हमारी सबसे महान श्रद्धांजलि होगी।’
    उनकी पैनी दृष्टि व्यापक थी। अपनी भावनाओं एवं दर्शन को उन्होंने मर्मस्पर्शी ढंग से प्रगट किया हैः ’आज से सदियों पूर्व हमारे बीच जिस मानव-दर्शन सिद्धांत ने जन्म लिया था और जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आ रहा है, उसके बावजूद हम व्यावहारिक जीवन में, मनुष्य को मनुष्य की मर्यादा नहीं दे पाये हैं। लाखों-करोड़ों व्यक्ति दलित और पीड़ित जीवन बिताते हैं। और वे समाज में मनुष्य की तरह जीवन नहीं बिता पाते। यदि भारत के उत्थान के लिए, जो कि हमारा लक्ष्य है, हमें विशाल संयुक्त प्रयास करना है तो एक ऐसा सामान्य स्वप्न होना चाहिए, जो लाखों दलित और पीड़ित व्यक्तियों को संयुक्त प्रयास में सम्मिलत होने की प्ररेणा दे सके। एक सिद्ध दार्शनिक के रूप में समाज की यथार्थताओं का वस्तुपरक विश्लेषन तथा अच्छाइयों को उभारने का काम उन्होंने अप्रतिम निपुणता के साथ किया। निस्पृह जनसेवा उनके कर्त्तव्य का मूलमंत्र था। उनकी अद्भुत कर्मठता में हृदय की विराटता तथा भावप्रवण आर्द्रता का अपूर्व सम्मिश्रण था। वे महान दार्शनिक रूसो की उक्ति, ’दर्शानिक को राजा होना चाहिए और राजा को दार्शनिक’ को पूर्णतया चरितार्थ करते थे। अपने विवेक और प्रज्ञा से, वे वाह्य जगत से आंतरिक जगत तक निरपेक्ष संतुलन बनाकर जीवन के यथार्थ को सांस्कृतिक धरातल पर परिलक्षित करते थे।
    जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने अपनी संवेदना तथा दर्शन को यों व्यक्त किया थाः ”जब मैं अपने देहातों को देखता हूँ तो गुरूदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ’निर्झर स्वप्न भंग’ कविता मुझे याद आती है। उन्होंने उसमें कहा है कि हिमालय पहाड़ के ऊपर लाखों-करोड़ों मन पानी आलस्य और ठंढ़क से चट्टान बनकर पड़ा रहता है। किसी के काम का वह नहीं, लेकिन जब सूर्य की रश्मि गिरती है तब वह पानी बहने लगता है और एक नदी बन जाती है और उसके दोनों तरफ उर्वर जमीन बनती जाती है। तो आज मुझे देहात के लोगों के भीतर एक अच्छी जिंदगी की ख्वाहिश पैदा करनी है। जब तक वे अच्छी जिंदगी का स्वप्न नहीं देखते, उनके हाथों-पैरों में ताकत नहीं आ सकती।” उन्होंने एक भाषण में कहा थाः ’हर युग में महापुरूष पैदा होता है, जो समय के आगे का स्वप्न देखता है। लेकिन जनसाधारण, उसके पीछे चलने का दावा करनेवाले, अपनी कमजोरियों के कारण जमीन से ऊपर उठकर नहीं देखना चाहते। फलतः पैगम्बर संदेश देता है, मगर लोग पुरानी धारा में बहते रहते हैं।”
    उनका दृढ़ मत था कि जनतंत्र के लोक प्रशासन के दायित्वों का भलीभाँति निर्वहन के लिए राजनीति तथा नौकरशाही के बीच समन्वय तथा सहक्रिया की परम आवश्यकता है। श्री बाबू अपने मंत्रिपरिषद् के सदस्यों को हिदायत दे रखी थी कि संबंधित विभागीय दायित्वों के प्रति पूर्ण समर्पण एवं सजगता के साथ उनकी गहन जानकारी को उंगलियों पर रखा जाना है। उनका मानना था कि मात्र नौकरशाही पर आधारित होकर जनतांत्रिक न्याय नहीं सुनिश्चित किया जा सकता है। अंततः मंत्रियों को अपने विभाग को सूक्ष्मता से समझना होगा तथा समस्याओं से अवगत होने और कारगर ढंग से उन्हें सुलझााने के लिए अपेक्षित अध्ययन भी जरूरी है। उनके स्नेहभाजन बनने के लिए किसी भी राजनेता या अधिकारी को कर्त्तव्य की कठोर परीक्षा देनी पड़ती थी तथा कठिन परिश्रम और कर्मनिष्ठा का सतत परिचय। परिणामस्वरूप, लोक प्रशासन के अमेरिकी विशेषज्ञ पॉल एपेल्वी ने राज्यों के लोक प्रशासन पर अपनी रिपोर्ट में बिहार के प्रशासन को अव्वल दर्जा प्रदान किया था।
    उनकी ज्ञान पिपासा असीमित थी तथा निरंतर अपने आयाम का विस्तार करती रहती थी। उन्होंने अपनी अघ्ययनशीलता एवं पुस्तकों के विरल संग्रह के रहस्य के बारे में बताया थाः ’इतिहास के प्रति भी मेरी अभिरूचि में परिवर्त्तन होने लगा और अंत में वह रूचि भारतवर्ष के पुराने इतिहास ही नहीं बल्कि मानव जाति के पुराने इतिहास की ओर मुड़ चली। .......पुरातन सभ्यता के अध्ययन की अभिरूचि ने मुझ में इस विचार को पैदा किया कि पुरातन भारतीय संस्कृति की आत्मा का उचित परिचय और जानकारी के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है और तब मैं संस्कृत की अध्ययन की ओर मुड़ा।........’
    उनके चरित्र में हमेशा सदाश्यता प्रवाहमान था। वे मात्र शुभेच्छुओं और समर्थको के प्रति ही नहीं बल्कि अपने प्रबल प्रतिद्वंदियों के प्रति भी अतिशय स्नेहिल और उदार थे। बिहार विभूति अनुग्रह नारायण सिंह से उनकी प्रतिद्वंदिता जगजाहिर थी फिर भी उनके प्रति श्री बाबू को अपार श्रद्धा और सम्मान का भाव था। अनुग्रह बाबू भी उनके प्रति असीम आदर और स्नेह का व्यवहार रखते थे। अनुग्रह बाबू ने श्री बाबू के संबंध में लिखा हैः ’1921 ई0 के बाद बिहार का इतिहास श्रीबाबू के जीवन का इतिहास है।’ श्री बाबू भी सच्चे गाँधीवादी तथा बिहार के प्रथम उप मुख्यमंत्री एवं वित्त मंत्री का मुक्त कंठ से बिहार के निर्माण के अवदान की प्रशंसा की है।  तीस के दशक में डा0 राजेन्द्र प्रसाद के साथ श्री बाबू के पत्राचार के अध्ययन से यह पता चलता है कि राजेन्द्र बाबू ने श्री बाबू को दिनांक 5.10.1938 को गोपनीय पत्र लिखा था जिसमें बंगाली-बिहारी जैसे विवादित मुद्दों पर एक प्रारूप संलग्न था। राजेन्द्र बाबू ने पत्र में श्री बाबू को खास तौर पर हिदायत दिया था कि इस प्रारूप को वे किसी अन्य से साझा ना करें तथा अपनी सम्मति भेजें। कुछ दिनों के बाद राजेन्द्र बाबू ने श्री बाबू को पुनः पत्र लिखकर यह बताया कि इस प्रारूप में गहन चर्चा के बाद आमूल-चूल परिवर्त्तन किया जा रहा है फिर भी इसे किसी को भी नहीं बताया जाना है, जब तक अंतिम निर्णय नहीं लिया जाता है। श्री बाबू ने अपने पत्रोत्तर में जिक्र्र किया था कि इस प्रारूप को मात्र अनुग्रह बाबू को दिखाया गया है ताकि उनका बहुमूल्य सुझाव मिल सके और राजेन्द्र बाबू की हिदायत को वे अनुग्रह बाबू को भी बता दिये हैं। ऐसा भरोसा था श्री बाबू का अनुग्रह बाबू पर। उनके लिए मित्रता कतई ’अवसरवादिता’ नहीं थीं वरन् एक ’मधुर एवं महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व’ था, जैसा खलील जिब्रान का मानना था। ऐसी मित्रता तथा निःस्वार्थ सौहार्द आज के स्वार्थपरक दुनिया में कल्पना से परे है।
    डा0 श्री कृष्ण सिंह मे श्रेष्ठ मानवोचित गुण भरे थे। वे सतत सारस्वत साधक के अलावा स्वच्छ राजनीतिज्ञ, अनासक्त कर्मयोगी, सर्वगुण-सम्पन्न त्यागी तथा मानवता के महान हितैषी थे। हम सब उनके पदचिह्नों पर चल पाये तो मानव कल्याण का राज्य मार्ग निश्चित रूप से प्रशस्त होगा और यही इस उदारचेता एवं प्रज्ञा पुरूष के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धाजंलि होगी। 
 

-प्रभात कुमार राय

ऊर्जा सलाहकार, मुख्यमंत्री, बिहार 

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