सोमवार, 26 सितंबर 2016

बदलती काशी का किन्नरों को नया संदेश

-प्रभुनाथ शुक्ल/ विष्णुपुरी यानी काशी भगवान शिव की जीवंत नगरी है। काशी धर्म और वैदिक संस्कृति के साथ संस्कारों का जीवंत स्वरुप है और विश्व के प्राचीनतम नगर संस्कृति का अंग है। दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋगवेद में काशी का उल्लेख मिलता है। इसे मोक्ष की पुरी भी कहा जाता है। काशी हमेंशा मूल्यों की स्थापना और उसके आधिपत्य में आगे रही है। यहां रुढ़िवादी व्यवस्था और उसकी विचारधारा को कोई स्थान नहीं मिलता है। यह शाश्वत सत्य है और उसी का वरण करती है। काशी बदलाव को लेकर एक बार फिर देश और दुनिया धार्मिक बहस की केंद्रीय बिंदु में है। उस केंद्र में धर्म और उसका बदलता स्वरुप है।पितृपक्ष के मातृ नवमीं को किन्नर समाज ने नई परपरंरा की शुरुवात की।
काशी में वैदिक मंत्रों के बीच पितरों को याद करते हुए पिचासमोचन कुंड पर त्रिपिंडी श्राद्ध किया। महाभारत काल के बाद पहली बार ऐसा हुआ जब किन्नरों ने धार्मिक मान्यता के बंधन को किनारे धकेलते हुए पितृपक्ष में वैदिक रीति रिवाज के साथ हिंदूधर्म में आस्था रखते हुए श्राद्ध कर्म किया। कहा जाता है कि महाभारत में शिखंडी के बाद किसी ने इस वैदिक व्यवस्था का निर्वहन नहीं किया था। यह सब उज्जैन स्थित किन्नर अखाड़ा के महामंडलेश्वर लक्ष्मीनारायण मणि त्रिपाठी की अगुवाई में हुआ।सवाल उठता है कि अभी तक इसका अधिकार किन्नरों को क्यों नहीं था। किन्नर हमारे समाज में उपेक्षित क्यों हैं। उन्हें श्राद्ध और दूसरी धार्मिक मान्यताओं का अधिकार क्यों नहीं था। क्या किन्नर हिंदू या दूसरे समाज और उसकी संस्कृति का अंग नहीं हैं।
हमारे समाज और परिवार की व्यवस्था का एक हिस्सा हाते हुए भी उन्हें सामाजिक तिरस्कार क्यों सहना पड़ता है। उन्हें मरने के बाद हिंदू परंपरा और संस्कृति के अनुसार जलाने का अधिकार क्यों नहीं है। हम अपने को हिंदू होने पर गर्व करते हैं और दंभ भरते हैं लेकिन खुद अपने समाज के लोग ही क्यों उपेक्षित हैं, इसका जबाब शायद हमारे पास नहीं है। निश्चित तौर पर इस दकियानूसी व्यवस्था की बेड़िया वैदिक समाज से जकड़ती चली आ रही हैं। जिसमें कुछ व्यवस्था कुछ लोगों के हाथ से संचालित होती थी। जिन्होंने सामाजिक कुरीतियों को तोड़ने के बजाय बढ़ाने का ठेका ले रखा था। लेकिन बदलती सोच और खुले विचारों के कारण यह जंजीरें चटक रही हैं तो इसे टूटने देना चाहिए। बदलाव का हम जीतना मुखालफत करेंगे वह उतनी तीखी होंगी, वह जब वह सकारात्मक हो और उसकी दिशा एक नए समाज और व्यवस्था का निर्माण कर रही हो।
धार्मिक रुढ़िवादिता का प्रतिफल रहा कि किन्नर समाज भेदभाव की नीतियों के कारण अपने को अलग कर लिया और अलग सामाजिक नीति और व्यवस्था का संचलन किया। एक अलग संविधान और व्यवस्था बनायी। हिंदू होने के बाद भी दैहिक मोक्ष यानी मौत के बाद इन्हें गंगा के तट पर अंतिम संस्कार करने का अधिकार नहीं है बल्कि किन्नरों की सामाजिक रीवाजों के तहत जमींन में दफन किया जाता है। यह समाज आज भी उपेक्षित और तिरस्कृत है।लेकिन मोक्ष की नगरी काशी ने भारत और दुनिया को नया संदेश दिया है। इसके पहले भी देश की सर्वोच्च अदालत ने इन्हें कामन जेंडर मानने के बजाय तीसरे जेंडर के रुप में मान्यता दे चुका है। निश्चित तौर पर धर्म और आस्था की नगरी काशी से निकला यह संदेश किन्नर समाज के लिए बदलाव की नई दिशा तय करेगा। हिंदू समाज के साथ मुस्लिम, सिख, ईसाई समाज को भी इस बदलाव के बारे में विचार करना होगा।
हमें कामन जेंडर की मान्यता को तोड़ना होगा। उन्हें समाज में अपनी धार्मिक व्यवस्था और संस्कृति के अनुसार अधिकार देने की आवश्यकता है। किन्नर समाज के लोग विधायक से लेकर महापौर की भूमिका में हमारे सामने हैं फिर इनसे भेदभाव और शिकायत कैसी। इस बदलाव को हिंदू समाज को जमींनी स्तर पर लेना चाहिए।सवाल उठता है कि हिंदू समाज और परिवार में पैदा होने वाले किन्नर हमारे लिए बोझ क्यों बनते हैं। महामंडलेश्वर लक्ष्मीनारायण मणि के अनुसार इस परंपरा को तोड़ने का मूल मकशद केवल किन्नरों को समाज में उचित सम्मान दिलाना है। इससे लोगों की सोच में बदलाव आएगा और आदिकाल से चली आ रही इस धार्मिक व्यवस्था पर विराम लगेगा।यह हमारी समाजिक व्यवस्था से जुड़ा नीतिगत सवाल है कि किन्नर भी तो उसी मां-बाप की संतान होता है फिर उसे तिरस्कृत और उपेक्षित क्यों किया जाता है। फर्क सिर्फ इतना है कि वह दूसरों की भांति नैसर्गिक व्यवस्था का संचालन नहीं कर सकता है बाकि तो सारी जिम्मेदारियां वह निभा सकता है।
सामाजिक दकियानूसी का सवाल वहीं आकर अटक जाता है कि समाज और व्यवस्था में जिस सृष्टिचक्र को आगे बढ़ाने का प्राकृतिक गुण रखते हुए भी लोग उस व्यवस्था का पोषक नहीं बनता, लेकिन समाज उसे बहिष्कृत नहीं करता है। उसे सामान्य इंसान की तरह सम्मान दिया जाता है। उसे सिर्फ निःसंतान दंपति भर से नवाजा जाता है। लेकिन हमारी धार्मिक व्यवस्था और घर व समाज में उसके सम्मान में कोई कमी नहीं आती है। इसीलिए कि प्राकृतिक खूबियों को धारण करने के बाद भी संतान पैदा करने में अक्षम साबित होता है। जबकि किन्नरों जन्म से ही उस नैसर्गिक व्यवस्था का अंग नहीं होता है। लेकिन सृष्टिचक्र को आगे बढ़ाना ही सिर्फ इसका विभेद है तो इस पर धर्म और समाज को विचार करना चाहिए और अपनी सोच में बदलाव लाना चाहिए।भारत सरकार किन्नरों के अधिकार को लेकर काफी जागरुक है। देश की सुप्रीमकोर्ट ने तो इस समाज को तीसरे लिंग के रुप कानूनी मान्यता दे चुकी है। सामाजिक और कानूनी अधिकारों को लेकर कोई बहस नहीं होनी चाहिए।
सरकार आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक भागीदारी को लेकर इनके अधिकारों के लिए सतर्क है। मोदी सरकार ने इनकी कानूनी सुरक्षा को लेकर जुलाई 2016 में टांसजेंडर पर्सन्स यानी प्रोटेक्शन आफ राइट बिल को मंजूरी दी है। इस बिल से सामाजिक भेदभाव मिटाने में सहयोेग मिलेगा। क्योंकि हमारा समाज इन्हें एक कलंक के रुप में देखता है। डीएमके सासंद ने भी 2015 में द राइट्स आफ टांसजेंडर्स पर्ससन्न बिल 2014 राज्सभा में पेश किया था। इसी बिल को मोदी सरकार का वर्जन माना गया। विधेयक के अनुसार किन्नरों के उत्पीड़न पर छह माह की जेल का भी प्राविधान है। विधयेक में किन्नरों के लिए ओबीसी में शामिल करने का भी प्राविधान किया गया। लेकिन यह बदलाव और कानूनी अधिकार तभी संभव है जब हम बदलाव की इस मुहिम में सरकार और किन्नरों के साथ खड़े होंगे।
सिर्फ किताबों में लिखने और कानूनी मान्यता दिलाने भर से कुछ नहीं होगा जब तक की हमारी सोच में कोई बदलावा नहीं आएगा। हमें बदलाव को स्वीकार करना ही होगा। सावाल लाजमी है किहमने उनके लिए समाजिक व्यवस्था का अगल मापदंड क्यों तय कर रखें हैं। काशी से उठा संदेश काबा की धतरी के साथ वेटिकन सिटी तक जाना चाहिए। बदलाव की एक नई इबादत लिखी जानी शुरु हुई है। धार्मिक जकड़नों की बेड़ियों को तोड़ने की यह नई पहल और अच्छी शुरुवात है। धर्म निरंकुश बेड़िया चटक रही हैं वह हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश को लेकर हो या शनिसिंगापुर की बात हो हमने समय के साथ उस बदलाव को स्वीकार किया है। हम महिलाएं भी पुरोहित और श्राद्धकर्म कर रही हैं। हिंदू हो या इस्लाम धार्मिक स्वतंत्रता की आवाजें उठने लगी हैं। उसी बदलाव की यह शुरुवात है। यह बदलाव सिर्फ हिंदूधर्म में नहीं सभी धर्मों में होनी चाहिए। यह बदलती दुनिया और समय की मांग है। सभी धार्मों के धर्मगुरुओं और संस्थाओं को बदलती व्यवस्था और उठती आवाज का संदेश पढ़ना चाहिए।

लेखक प्रभुनाथ शुक्ल स्वतंत्र पत्रकार हैं

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